आज ही के दिन 15 नवम्बर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखण्ड
भारत गणराज्य के 28 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था। 'झार' या
'झाड़' वन का पर्याय है और 'खण्ड' यानी टुकड़ा। अपने नाम के अनुरुप यह
मूलतः एक वन प्रदेश है जो अनेक आदिवासी समुदायों का नैसर्गिक वास स्थल रहा
है। इनमें मुंडा, संथाल, खड़िया, उरांव, असुर, बिरजिया आदि प्रमुख आदिवासी
समुदाय हैं। प्रदेश का ज्यादातर हिस्सा वन-क्षेत्र है, जहां बाघ, हाथी,
सांभर, जंगली सूअर, अजगर, चीतल एवं अन्य विविध वन्य जीव पाये जाते है।
बाघों के संरक्षण और गणना का काम देश में सबसे पहले झारखण्ड के पलामू में
शुरू हुआ था जो आज बेतला टाइगर रिजर्व के नाम से जाना है। चौबीस जिलों वाले
झारखण्ड राज्य की राजधानी राँची है। प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य और असीमित
पर्यटन स्थलों वाले झारखण्ड में नदी व पहाड़ों का सौंदर्य, गिरते झरनों का
संगीत और जंगलों से आती पक्षियों की सुमधुर आवाजें यहां सैलानियों को
आकर्षित करते हैं।
यहां हजारीबाग, पलामू, लोहरदगा, गुमला, पूर्वी एवं
पश्चिमी सिंहभूमि जैसे इलाकों में पाषाणकालीन गुफाओं में प्राचीन शैल चित्र
मिले हैं। खनिज की उपलब्धता के मामले में बोकारो व जमशेदपुर स्टील प्लांट
के लिये और धनबाद के पास स्थित झरिया कोयला संसाधन के लिये पूरे विश्व में
प्रसिद्ध है। खेलों की दुनिया में झारखण्ड के ख्रिलाड़ियों ने
संसाधन-सुविधाओं के बगैर केवल जज्बे के दम पर देश और दुनिया में अपना परचम
लहराया है। यहां के खिलाड़ी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर भारतीय
हॉकी का झण्डा बुलन्द करते रहे हैं। यहां की आदिम जनजातियों की प्रकृति और
संस्कृति अप्रतिम है। झारखण्ड के प्राय: समस्त नृत्य-संगीत सामूहिक हैं
जिनमें डाहरा, आषाढ़िया, पाइका छऊ, जदुर, नटुआ, चौकारा आदि झारखण्ड के
आकर्षक व मनोहारी लोकनृत्य हैं।
लोककला व जनजाति कला में झारखण्ड बहुत
समृद्ध है। संथाल जनजाति में चित्रांकन की जादोपटिया शैली काफी मशहूर है।
इस शैली में सामान्यत: छोटे कपड़ों या कागज के टुकड़ों को जोड़कर बनाये जाने
वाले पटों पर समाज के मिथकों, विभिन्न रीति-रिवाजों और धार्मिक विश्वासों
के चित्र अंकित किये जाते हैं।
संथाल आदिवासियों में भित्ति चित्र की
परम्परा में अलंकरण और सज्जाकारी में गजब का मानवीय बोध दिखता है। घरों की
दीवारों पर चिकनी मिट्टी का लेप और मिट्टी व वनस्पति से प्राप्त रंगों से
उकेरी जाने वाली जनजातीय कलाएं कोहबर और सोहराय आदिवासी समाज के सहज-सरल
जीवन में निहित कला और सौन्दर्यबोध का प्रमाण हैं। इनको आदिवासी संस्कृति
की दीर्घ परम्परा के रूप में विकसित करने और उन्हें अन्तरर्राष्ट्रीय पहचान
दिलाने के प्रयास भी चल रहे हैं। कोहबर कला में प्राकृतिक परिवेश, और
स्त्री-पुरुष सम्बंधों के विविध पक्षों का चित्रण होता है, वहीं सोहराय कला
में जंगली जीव-जंतुओं, पक्षियों और पेड़-पौधों को उकेरा जाता है।
दीवारों
पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर मिट्टी के रंगों से बने चित्रों में कोहबर कला की
विशेषताएं प्रतिबिम्बित होती हैं। प्रत्येक विवाहित महिला अपने पति के घर
कोहबर कला का चित्रण करती है।
विवाह संस्कार के दौरान इसमें घर-आंगन में
विभिन्न ज्यामितिक आकृतियों में फूल-पत्तियों, पेड़-पौधों और नारी प्रतीकों
की अनूठी चित्रकारी की जाती है। कोहबर का सामान्य अर्थ है -गुफा में
विवाहित जोड़ा। कोह माने गुफा और बर माने विवाहित युगल। सोहराय जनजातियों की
प्राचीन चित्रकला है। यह चित्रकारी वर्षा ऋतु के बाद घरों की लिपाई-पुताई
से शुरू होती है। कोहबर की तरह सोहराय चित्रकला भी आदिवासी औरतों में
परम्परागत हुनर के कारण जिन्दा है। दोनों कलाओं में फर्क उनके लिए चुने
जाने वाले प्रतीकों में नजर आता है। कोहबर में सिकी देवी का विशेष चित्रण
मिलता है जबकि सोहराय में कला के देवता प्रजापति या पशुपति का।
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